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क्या अमेरिका की मून-लैंडिंग फेक थी?|| Truth Behind Moon Landing Of America by Apollo 11 in 1969 ||

●क्या अमेरिका की मून-लैंडिंग फेक थी?●

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21 जुलाई, 1969: अपोलो 11 की सफल चन्द्र लैंडिंग के बाद घर वापस आते हुए नील आर्मस्ट्रांग और बज एल्ड्रिन ने यादगार के तौर पर अमेरिकी झंडा चाँद की सतह पर अपनी लैंडिंग साईट से 8 मीटर दूर गाड़ दिया था। घर की उड़ान भरते वक़्त लूनर लैंडिंग मोड्यूल के रॉकेट इंजन से निकली गैसों के प्रचंड वेग से यह झंडा उखड कर जमीन पर जा गिरा था। इस कारण भविष्य में गये अपोलो मिशन में यह ख्याल रखा गया कि झंडा लैंडिंग साईट से दूर लगाया जाए।

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चाँद पर चूंकि हवा नहीं है, इसलिए इस झंडे के फैब्रिक के भीतर विशेष रूप से बनाई गईं हल्की तारों की संरचना मौजूद थी जिससे कि झंडा सीधा रहे। उसके अलावा झंडा निकाल कर लगाने के दौरान ट्रांसफर हुए मोमेंटम से पैदा हुई सिकुडनों के कारण भी झंडा लहराने का आभास देता है। कंजरवेशन ऑफ़ मोमेंटम नाम के कारण स्पेस में लहराने अथवा किसी भी प्रकार की गति कर रहे ऑब्जेक्ट की गति लम्बे समय तक संरक्षित रहती है। आपको यह समझ न आये तो खुद से पूछिए कि अरबों वर्ष बीतने के बावजूद पृथ्वी अन्तरिक्ष में गति कैसे कर पा रही है?

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मैं यहाँ कहना यह चाहता हूँ कि झंडा कैसे लहराया, फोटो में सितारे क्यूँ नहीं दिखे, परछाई की शेप अजीब क्यूँ है – ऐसी बातें करने से पहले यह जानना जरूरी है कि पृथ्वी पर हासिल हुए मानवीय अनुभव अन्तरिक्ष अथवा दूसरे ग्रहों पर पूरी तरह अलग हो सकते हैं। अगर कोई चीज देखने में अजीब लग रही है तो जरूरी नहीं कि उसके पीछे कोई साजिश ही हो। स्पेस में एरोडायनॉमिक्स अथवा ऑप्टिक्स के नियम पृथ्वी के बनिस्पत पूरी तरह अलग होते हैं। जरूरत उन नियमों को समझने की है।

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अक्सर लोग पूछते हैं कि आज से 50 वर्ष पूर्व आखिर किस तकनीक के सहारे नासा चाँद पर हो कर आ गया? यह पूछना कुछ ऐसा ही है, मानों कोई आज सेल्फ-ड्राइविंग कार को देख यूँ कहे कि – आज से कुछ दशक पूर्व कार होनी असंभव थी। कार पहले भी होती थीं, बस कंट्रोल डिजिटल कम, मैन्युअल ज्यादा होते थे। बल्कि सही मायनों में अपोलो मिशन्स के साथ ही डिजिटल कंट्रोल्ड फ्लाइट की शुरुआत हुई थी, जिस डिजिटल फ्लाय-बाय सिस्टम को आज तक एयरलाइन्स और फाइटर जेट्स में इस्तेमाल किया जाता है।

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वैसे चाहें 2023 हो अथवा 1969: चाँद अथवा स्पेस में जा कर वापस आने के लिए दो चीजें सबसे ज्यादा मायने रखती हैं: एक तो आपके राकेट के वजन उठाने की क्षमता और दूजा रेडियो वेव्स पर आधारित नेविगेशन-कम्युनिकेशन तकनीक।

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मैं आपको बता दूँ कि 1936 जर्मनी ओलंपिक का पहली बार सीधा प्रसारण रेडियो वेव्स ट्रांसमिशन के जरिये हुआ था। 1960 और 1964 का ओलंपिक आते-आते रेडियो तकनीक इतनी सशक्त हो चुकी थी कि इन ओलंपिक खेलों का विश्वव्यापी प्रसारण हुआ था। इन्ही रेडियो वेव्स के सहारे ही स्पेस में नेविगेशन और कम्युनिकेशन होता है।

जहां तक रॉकेट की क्षमता की बात है तो… 2023 में भारत पौने चार लाख किलोमीटर दूर मौजूद चाँद की कक्षा में 4 टन वजन भेजने की क्षमता रखता है। वहीँ आज से 50 वर्ष पूर्व नासा 5 करोड़ किलोमीटर दूर मौजूद मंगल ग्रह तक 22 टन वजन भेज पाने में सक्षम था, जी हाँ, मंगल ग्रह। इसी फैक्ट से आप 50 वर्ष पूर्व उनकी तकनीक के स्तर का अंदाजा लगा सकते हैं।

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नासा की अधिक Payload Capacity के कारण ही अपोलो यानों को इस तरह बनाया जा सका कि वे चाँद पर उतरने के बाद अंतरिक्ष यात्रियों को वापस पृथ्वी पर ला भी पाएं। अन्तरिक्ष में पहुँचने के बाद अपोलो के दो हिस्से हो जाते थे: कमांड एंड सर्विस माड्यूल और लूनर लैंडर माड्यूल। कमांड माड्यूल में मौजूद रह कर माइकल कोलिन्स चाँद का चक्कर लगाते रहे, तो वहीँ नील और एल्ड्रिन लूनर माड्यूल में बैठ कर चाँद पर उतरे। लूनर माड्यूल के भी दो हिस्से थे, जिन दोनों हिस्सों में राकेट इंजन फिक्स थे। उतरने के बाद निचला हिस्सा ऊपरी हिस्से के लिए लांच पैड का काम करते हुए चाँद पर ही रह जाता था।

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चाँद पर उतरते समय लूनर माड्यूल का कुल वजन 15103 किलो था जिसमें ईंधन के तौर पर एरोजीन 50, ऑक्सीडाइजर के तौर पर नाइट्रोजन टेट्रोऑक्साइड, ऑक्सीजन, पानी तथा साइंटिफिक उपकरणों का वजन ही 8 टन से ज्यादा था। चाँद को छोड़ कर जाते वक़्त लूनर लोअर माड्यूल का वजन 2445 किलो और ईंधन का वजन 2376 किलो था। उतरते वक़्त रॉकेट थ्रस्ट 45000 न्यूटन थी तो वापस जाते समय 15000 न्यूटन। कहने का मतलब यह है कि पल-पल क्या हुआ, यान में क्या-क्या था, इसकी जानकारी नासा ने पब्लिक डोमेन में अपलोड कर रखी है। कोई देखने या पढने की जहमत तो उठाये।

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वैसे आपको बता दूँ कि अपोलो मिशन की पुष्टि के लिए आपको किसी अन्य की साक्षी की जरूरत नहीं। ये काम आप स्वयं कर सकते हैं। बस किसी ऑब्जर्वेटरी से संपर्क करिए जिनके पास शक्तिशाली लेजर शूट करने और वापस डिटेक्ट करने का सिस्टम हो। किसी एक्सपर्ट से लूनर कोआर्डिनेट सिस्टम समझ कर चाँद के Latitude: 0.67308° N एंड Longitude: 23.47297° E पर निशाना लगा कर एक लेजर शूट करिए। लगभग दो-ढाई सेकंड के बाद आपको अपनी भेजी लेजर वापस रिसीव हो जायेगी। ये कोआर्डिनेट अपोलो मिशन द्वारा चाँद पर छोड़े गये लेजर रिफ्लेक्टर के हैं जिन पर लेजर बाउंस करा के दुनिया भर के वैज्ञानिक आज भी अन्तरिक्ष में चाँद की सटीक स्थिति का आकलन कर पाते हैं। इन लेजर रिफ्लेक्टर के सहारे ही हम यह जान पाए हैं कि चाँद हर साल पृथ्वी से डेढ़ इंच दूर होता जा रहा है।

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एक प्रश्न यह भी उठता है कि नासा ने 50 वर्षों से चाँद पर जाना बंद क्यूँ कर रखा है। इसका सीधा जवाब यह है कि मान लो कि आपको गोवा घूमना पसंद है तो आप हर साल गोवा ही जाते हैं क्या? दो-चार बार जायेंगे, उसके बाद पैसे का सदुपयोग करते हुए दूसरे डेस्टिनेशन पर जाना पसंद करेंगे। है कि नहीं?

अब चूड़ी-तोड़क गैंग तो दुनिया के हर कोने में पाए जाते हैं। अमेरिका महंगा देश है। एक स्पेस मिशन की एवरेज कास्ट तीस से चालीस हजार करोड़ आती है। सफल अपोलो मिशंस के बाद नासा के बजट में कटौती की गयी जिस कारण उन्होंने सोलर सिस्टम के दूसरे ग्रहों पर मिशन भेजने पर ज्यादा ध्यान लगाया पर चाँद को कोई भूला नहीं है। जैसे कि मैंने पिछली पोस्ट में कहा था कि अगले दो वर्षों में आठ लाख करोड़ रूपए खर्च कर नासा चाँद पर परमानेंट स्टेशन बनाने जा रहा है ताकि भविष्य की स्पेसफ्लाइट सस्ती और सुगम हो सकें।

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नील और एल्ड्रिन चाँद से 21 किलो लूनर चट्टानें भी लाये थे जिनके चाँद से संबंधित होने की पुष्टि दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र परीक्षणों के बाद की है। अपोलो मिशन के दौरान दुनिया भर की स्पेस एजेंसीज और हजारों स्वतंत्र खगोल-वैज्ञानिकों की टीम पल-पल अपोलो की गतिविधियों को ट्रैक कर रहे थे। अपोलो मिशन में नासा के ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से चार लाख से ज्यादा लोग जुड़े थे। दुनिया भर की स्पेस एजेंसीज, यहाँ तक कि इसरो और अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी रूस तक ने अपोलो मिशन की पुष्टि की है। अब आप क्या कहेंगे कि दुनिया भर के लाखों लोग, स्पेस एजेंसीज और वैज्ञानिकों की आँखों में धूल झोंक कर अमेरिका ने अपोलो मिशन की जालसाजी कर डाली? क्या हम मान लें कि इसरो भी नासा के हाथों बिक गया है?

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यकीन मानिए, इतने बड़े स्तर का षड्यंत्र रचने से कहीं ज्यादा आसान है – चाँद पर एक्चुअल में जाना।

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Faking a moon-landing is extremely hard.

Going to moon for real is easy.

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And As Always

Thanks For Reading.

– झकझकिया

लेख़क – विजय सिंह ठकुराय

साभार – विजय सिंह ठकुराय

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